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जानें कैसे स्वामी विवेकानंद ने भरे दरबार में बंद किया राजा का मुंह…

स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) की आज (12 जनवरी को) जयंती है. भारत में इस दिन को राष्ट्रीय युवा दिवस (National Youth Day) के रूप में मनाया जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज इस मौके पर कर्नाटक के हुबली में नेशनल यूथ फेस्टिवल (National Youth Festival) का उद्घाटन भी करेंगे. स्वामी विवेकानंद ने भारत ही नहीं, अमेरिका तक भारतीय संस्कृति का डंका बजाया. सन् 1893 की विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद के भाषण की आज भी लोग याद करते हैं. अमेरिका में स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण की शुरुआत लेडीज एंड जेंटलमैन नहीं, बल्कि भाइयों और बहनों कहकर शुरू की थी. ये सुनते ही वहां के लोग तालियां बजाने लगे थे और भारत के इस संन्यासी की तारीफ करने लगे थे. स्वामी विवेकानंद ने एक बार अलवर के राजा को मूर्ति पूजा का मर्म भी समझाया था. आइए उस कहानी के बारे में जानते हैं. स्वामी विवेकानंद की हाजिर जवाबी की दुनिया थी कायल बता दें कि स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था. उनकी हाजिर जवाबी की पूरी दुनिया में तारीफ हुई. बचपन में उनका नाम नरेंद्र था. कम उम्र में ही नरेंद्र का झुकाव आध्यात्म की ओर हो गया था. हालांकि, बचपन में वह चंचल स्वभाव के थे, लेकिन जैसे-जैसे वो बड़े हुए उनकी पौराणिक और व्यवहारिक ज्ञान को लेकर समझ बढ़ती गई. कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद जो एक बार पढ़ लेते थे, वह कभी नहीं भूलते थे. उनकी यादाश्त बड़ी तेज थी. जब राजा को समझाया मूर्ति पूजा का मर्म स्वामी विवेकानंद सन् 1891 में अलवर गए थे. वहां, उन्होंने अलवर के राजा मंगल सिंह से भी मुलाकात की थी. चर्चा के दौरान स्वामी विवेकानंद और अलवर के राजा के बीच मूर्ति पूजा को लेकर बहस हो गई थी. राजा ने मूर्ति पूजा को लेकर सवाल खड़ा कर दिया था, जिसके बाद स्वामी विवेकानंद ने राजा को मूर्ति पूजा का मर्म समझाया था. स्वामी विवेकानंद ने राजा से कही थी ये बात स्वामी विवेकानंद ने राजमहल में लगी राजा के पिता की तस्वीर की तरफ इशारा किया था और उनसे पूछा था कि आप इस तस्वीर का इतना ख्याल क्यों रखते हैं? इसे सम्मान क्यों देते हैं? इसको यहां क्यों लगा रखा है जबकि यह महज एक तस्वीर है. कागज का टुकड़ा है. इसी तरह मूर्ति पूजा में मूर्ति को भगवान का प्रतीक माना जाता है. तब जाकर राजा को मूर्ति पूजा का महत्व समझ में आ गया था.

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